जीवन का वास्तविक सत्य श्रेष्ठ कर्म
समाजसेवी डॉ० मुन्नालाल भारतीय के मतानुसार- वर्तमान में हम देख रहे हैं कि अधिकांश लोग सत्संग सुनने जाते हैं सत्संगी गुरुओं की सेवा करते हैं, उन्हें एक प्रकार से परमात्मा की संज्ञा देते हैं। परन्तु क्या यह सभी लोग सत्संग का मूल अर्थ समझते हैं, "नहीं"। वर्तमान में हम देख सकते हैं कि अधिकतर मनुष्य अपने माता-पिता आदर्श गुरु व परिवार के बड़े बुजुर्ग आदि की लगन से सेवा नहीं कर रहा है लेकिन सत्संग की संगत जरूर कर रहा है।आज के अधिकतर मनुष्यों की विचारधारा है कि सत्संग की संगत उसे मुक्ति द्वार तक ले जायेगी। जिस परम् सुख को मनुष्य माता-पिता व परिवार की सेवा करने के बजाय सत्संग की संगत में ढूँढता है। घर में बूढ़े माता-पिता को छोड़कर उनके चरणों में सिर झुकाने की बजाय मनुष्य मन्दिरों, तीर्थस्थलों आदि पर जाते हैं, प्रसाद चढ़ाने, शीश झुकाने। मन्दिरों-मस्जिदों आदि में प्रभु को ढूँढने जाते हैं लेकिन उस परमात्मा को अपने माता-पिता में अवतरित करके नहीं देख सकते हैं।
एक ज्ञानी और सदाचारी मनुष्य अपने माता-पिता में परमात्मा को अवतरित करके देखता है, उनका आदर करता है, उनकी सेवा करता है, यही सच्चा सत्संग है। अर्थात् सत्य का संग और यही मोक्ष का द्वार है और जिस दिन मनुष्य सत्य के संग व अच्छे कर्मों के संग की परिभाषा समझ जायेगा और अपने जीवन में इनका अनुसरण करने लगेगा, उस दिन से मनुष्य के मोक्ष के द्वारा स्वत: ही खुलने आरम्भ हो जायेंगे। लेकिन आज का मनुष्य सदाचार के इस महत्व को जानते हुए भी इस महत्व से अनभिज्ञ होने की चेष्टा करता है केवल अपने स्वार्थ व झूठे अभिमान के कारण ।
संसार के दो वास्तविक सत्य हैं-जीवन और मरण। परन्तु आज के अधिकांश मनुष्य केवल जीवन स्वार्थ, अभिमान आदि को ही याद रखना चाहता है और मरण को भूलने का प्रयास करता है और जो मनुष्य संसार के इन दोनों सत्य "जीवन और मरण" को याद रखता है, श्रेष्ठ कर्म करने में विश्वास रखता है। यही मनुष्य के मोक्ष द्वार को खोलता है और ऐसे मनुष्य के हृदय में ही परमात्मा का वास होता है। जिस समय परिवार में सन्तान जन्म लेती है उस वक्त माता-पिता व पूरे परिवार को अपार प्रसन्नता होती है। उस सन्तान को माता-पिता व पूुरा परिवार लाड़-प्यार से अपने सुख की चिन्ता न करते हुए उसका पालन-पोषण करते हैं। उन्हें संसार की हर खुशी देने का प्रयास करते हैं ।
वड़ी खुशी के साथ अपनी सन्तान को विवाह बन्धन में बांधते हैं, इस आशा के साथ कि ढलती उम्र में हमारी सन्तान हमारे बुढ़ापे का सहारा बनेगी। मगर बड़े ही अफसोस की बात है कि यही सन्तान आत्म निर्भर बनने के बाद विवाह बन्धन में बंधने के बाद इन्हीं माता-पिता को अपने जीवन की उन्नति की सबसे बड़ी बाधा समझने लगती है। माता-पिता का सहारा बनने के
बजाय, अपने कर्त्तव्यों से विमुख होने की चेष्टा करती है। अधिकांश ऐसी सन्तान अपने माता-पिता की सेवा करना तो बहुत दूर की वात है। वरन् उन्हें समय से एक गिलास पानी पिलाना जरूरी नहीं समझती है।
जो सन्तान अपने परिवार का आदर सत्कार नहीं करती हैं ऐसी सन्तान समाज में सम्मान के पात्र नहीं होनी चाहिए और ऐसी दुराचारी सन्तान ही उम्र के अन्तिम पड़ाव पर दर-दर भटकते हुए मोक्ष का द्वार ढूँढती फिरती है।
Dr Munna Lal Bhartiya
Social Worker
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