Slavery
आखिर आम आदमी को आजादी कब मिलेगी क्या यही सपना देखा था आजाद भारत के निजाम का उन शहीदों ने जो हंसते-हंसते फांसी के फंदे पर झूल गए । समतायुक्त और शोषण विहीन समाज की परिकल्पना क्या साकार हुई क्या कानून अमीरों और गरीबों के लिए बराबर है वास्तविकता यह है कि हमारा देश भले गुलामी की जंजीरों से मुक्त हो गया हो लेकिन यहां की अवाम आज भी गुलाम है आजाद देश में गुलामों की फौज ना तो सीख सकती हैं ना ही अपने अधिकार के लिए लड़ सकती है उसे इतना कमजोर बना दिया गया है कि वह अपने हक के लिए कानून की शरण में भी नहीं जा सकता।
भले ही कहा जाता है कि देश की विकास दर में आशातीत वृद्धि हुई है हम सुख और समृद्धि अर्थव्यवस्था की ओर अग्रसर है यह सब बातें मन बहलाने को भले ही अच्छी लगे लेकिन वास्तविकता यह है कि आजादी के सात दशक बाद भी हम देश के बहुसंख्यक लोगों को आजादी का एहसास नहीं दिला पाए वह राजा महाराजाओं के जमाने में भी शोषित और पीड़ित थे अंग्रेजी शासन में भी उसके घर खुशहाली नहीं आई और अब आजाद भारत में भी वह दो जून की रोटी की जुगाड़ में अपना पूरा जीवन व्यतीत कर रहा है। साथ ही भारत में एक और कुप्रथा अपनी जड़ जमाए हुए वह है जातिवाद जिसने भारतीय समाज को आज भी टुकडों में बांट रखा है अतः समतायुक्त समाज की स्थापना अभी कोसों दूर है ।
आखिर क्या गलती हुई हमारे देश की बागडोर संभालने वाले करण धारों से क्या उनके संकल्प में कमी थी अथवा उनकी नियत में खोट था वास्तविकता यह है कि आजादी के बाद के अधिकांश नेता ईमानदार और देशभक्ति की भावना से भरे हुए थे वह देश की तस्वीर बदलना चाहते थे लेकिन उनके लाख चाहने पर भी कुछ नहीं हुआ हकीकत यह है कि सरकार बने ही गरीबों की भलाई के लिए कुछ योजनाएं लागू करें लेकिन उसे अमली जामा तो नौकरशाही ही पहनाती है नौकरशाही जिसके मुंह से भ्रष्टाचार और राज करने का खून अंग्रेजों के जमाने से ही लग चुका था । हमने स्वतंत्र भारत यूनियन जैक किस स्थान पर अपना तिरंगा लहरा दिया है लेकिन कायदे कानून अंग्रेजो के जमाने के ही चले आ रहे हैं ना तो किसी ने सख्ती दिखाई और ना ही इसे अपनी प्राथमिकता में शुमार किया।
देश की निरंकुश और भ्रष्ट नौकरशाही को आखिर क्यों नहीं बदला गया प्रशासन आज भी अंग्रेजों के जमाने का ध्यान दिलाता है पुलिस को देख कर आज भी आम आदमी भयभीत हो जाता है पटवारी अथवा लेखपाल आज भी किसानों का भाग्य विधाता बना हुआ है यही स्थिति बैंकिंग की है गरीब और किसान का जीवन आज भी महाजन के यहां गिरवी रखा हुआ है कहने को भले ही दलित व पिछड़ों को आरक्षण मिल गया हो लेकिन सच्चाई चौंकाने वाली है इन वर्गों के संपन्न हुए प्रभुता वाले लोगों के परिजनों को भी इसका लाभ मिल रहा है सामाजिक न्याय की अवधारणा ही नष्ट हो गई है इन वर्गों की भावनाओं को भड़का कर राजनेता अपना उल्लू जरूर सीधा कर रहे हैं जहां तक न्याय की बात है वह गरीब के लिए आज भी सपना बना हुआ है देश के जेलखाना में लाखों विचाराधीन कैदी आज भी रिहाई की बाट जोह रहे हैं अभी तक अनेक खिलाफ कोई चार्ज शीट दायर नहीं हुई है फिर भी वह अघोषित कारावास काटने को विवश है हालांकि निर्धनों के लिए निशुल्क कानूनी सहायता की व्यवस्था है फिर भी इन्हें न्याय क्यों नहीं मिला यह प्रश्न हमारी व्यवस्था पर सीधी चोट करता है गरीब और अक्षम व्यक्ति ना तो अपने मुकदमे की पैरवी कर पाता है और ना ही हाईकोर्ट अथवा सुप्रीम कोर्ट में न्याय पाने की आकांक्षा ही पाल सकता है
सरकारें आयी और गयीं सभी का नारा यही होता है गरीबी हटायेंगे लेकिन वास्तविकता यह है कि गरीबों को ही हटाया जाता है सरकारी विभागों से अरबों करोड़ों रुपए ऋण के रुप में डकारने वालों का बाल भी बांका नहीं होता जबकि इसके विपरीत गरीब किसान और मजदूर को कुछ हजार रुपये का ऋण वापस ना करने पर हवालात में ठूंस दिया जाता है उन्हें सार्वजनिक रूप से जलील किया जाता है महंगाई के कारण भी गरीबों को समूल नष्ट करने की पूंजीवादी साजिश है सरकारी व सेठों के गोदामों में खाना भले ही सड़ जाए भले ही उसे चूहे खा जाएं लेकिन भूख मिटाने के लिए उसे सस्ती कीमत पर मुहैया नहीं कराया जाएगा आखिर यह स्थिति कब तक जारी रहेगी कौन सोचेगा भारत माता के अभावग्रस्त लालों के बारे में कहीं ऐसा ना हो कि गरीबों का आक्रोश लावा बनकर अनहोनी को अंजाम दे ।
Dr Munna Lal Bhartiya
Social Worker
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